एक रोज़ निकला मैं सड़क पर ,
नकाब से अपना चहरा ढक कर,
दो कदम पर ही मिला शख्स अनजान,
पूछा उसने क्या है तुम्हारी पहचान ?
तुम हो पंडित, हरिजन,या फिर बनिया,
तुम सुन्नी हो, वहाबी, या फिर शिया,
तुम हो कुर्मी ,मोची,या फिर कुम्हार,
रहते हो कहाँ ,महाराष्ट्र ,यू प़ी या बिहार ,
है चमड़ी तुम्हारी गोरी ,काली या भूरी ,
जाती ही नहीं, उपजाति भी बताओ पूरी ,
हो तुम क्या हिन्दू, मुस्लिम या इसाई ,
बताओ गोत्र अपना ,शायद निकलो मेरे भाई ,
जन्मे हो कहाँ ,उत्तर या दखिन्न कि ओर,
पाते हो कोटा ,या है अभी वोटबैंक कमज़ोर |
मैंने भी दे दिया उसको जवाब ,
फेक दिया उतार के अपना नकाब |
देख चेहरा मेरा बौखलाया वो शख्स,
मेरे चेहरे में दिखा उसे अपना ही अक्स,
कहा उसने हममे नहीं है कोई फर्क,
है फर्क ,मैंने भी कह दिया बेधड़क ,
मैंने कहा इंसानों में है फर्क सिर्फ एक ,
बंदा होता है बुरा या फिर होता है नेक,
जो कोई भी माने कि है कोई और अंतर,
उसकी गिनती होती है बुरे लोगों के अन्दर,
बढा आगे मैं कह कर,में अच्छा हूँ ,आप बुरे हो जनाब,
जो पीछे मुड के देखा ,तो उठा रहा था वो मेरा नकाब |
- ताबिश 'शोहदा' जावेद
बहुत खूब... उम्दा ... इतना अच्छा लिखा है आपने वाह .. ... शुभकामनाएं आपको ...
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